संक्रमण
जो कर्म प्रकृति पूर्व में बंधी थी उसका अन्य प्रकृति रूप परिणमन हो जाना संक्रमण है। जीव के शुभाशुभ भावों के द्वारा कर्म प्रकृतियाँ परस्पर यथायोग्य बदलकर अन्य प्रकृति रूप हो जाती हैं इसे ही संक्रमण कहते हैं। मूल कर्म प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता अर्थात् ज्ञानावरणीय कभी दर्शनावरणीय रूप नहीं होती। उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है लेकिन दर्शनमोहनीय कभी चारित्र मोहनीय में संक्रमित नहीं होती और चारित्र मोहनीय भी दर्शन मोहनीय में संक्रमित नहीं होती तथा चारों आयुकर्म का भी परस्पर संक्रमण नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वभाव है। जैसे- रस्सी के बटने में जो बल दिया था बाद में उल्टा घुमाने से वह बल निकाल दिया इसी प्रकार जिस प्रकृति का बंध किया था बाद में परिणाम विशेष से भागाहार के द्वारा अपकृष्ट करके उसको अन्य प्रकृति रूप परिणमाकर उसका नाश कर दिया अर्थात् फल – उदय में नहीं आने दिया पहले ही नष्ट कर दिया इसे उद्वेलना संक्रमण कहते हैं अथवा अधःप्रवृत्त आदि तीन करण रूप परिणामों के बिना ही कर्म प्रकृतियों के परमाणुओं का अन्य प्रकृति रूप परिणमन होना उद्वेलना संक्रमण है। मंद विशुद्धता वाले जीव की स्थिति अनुभाग के घटाने रूप भूतकालीन स्थिति काण्डक और अनुभाग काण्डक तथा गुण श्रेणी आदि परिणामों में प्रवृत्ति होना विध्यात संक्रमण है। बंधी हुई कर्म प्रकृतियों का अपने बंध में संभवती प्रकृतियों में परमाणुओं का जो प्रदेश संक्रमण होता है वह अधः प्रवृत्त संक्रमण है। जहाँ पर प्रतिसमय असंख्यात गुणश्रेणी क्रम से परमाणु – प्रदेश अन्य प्रकृति रूप परिणमन करें वह गुण संक्रमण है। अन्त के काण्डक की अन्त की फालि के सर्व प्रदेशों में से जो अन्य प्रकृतियों रूप नहीं हुए हैं उन परमाणुओं का अन्य प्रकृति रूप होना सर्व संक्रमण है।गति जाति आदि पिंड प्रकृतियों में से जिस किसी विवक्षित एक प्रकृति के उदय आने पर अनुदय प्राप्त शेष प्रकृतियों का जो उसी प्रकृति में संक्रमण होकर उदय आता है उसे स्तिबुक संक्रमण कहते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के उदय प्राप्त एकेन्द्रिय जाति नामकर्म में अनुदय प्राप्त द्वीन्द्रिय जाति आदि का संक्रमण होकर उदय में आना ।