मिश्रानुकंपा
महान पातकों के मूल कारण रूप हिंसादिकों से विरक्त होकर अर्थात् अणुव्रती बनकर संतोष और वैराग्य में तत्पर रहकर जो दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्ड – विरतिव्रत, इन अणुव्रतों को धारण करते हैं। जिनके सेवन से महादोष उत्पन्न होते हैं, ऐसे भोगोपभोग का त्याग कर बाकी के भोगोपभोग की वस्तुओं का जिन्होंने प्रमाण किया है। जिनका मन पाप से भय युक्त हुआ है, पाप से डर कर विशिष्ट देश और काल की मर्यादा करके जिन्होंने सर्व पापों का त्याग किया है अर्थात् जो सामायिक करते हैं, पर्वों के दिनों में सम्पूर्ण आरम्भ का त्याग करके जो उपवास करते हैं। ऐसे संयतासंयत अर्थात् गृहस्थों पर जो दया की जाती है, उसे मिश्रानुकंपा कहते हैं। जो जीवों पर दया करते हैं, परन्तु दया का पूर्ण स्वरूप नहीं जानते हैं। जो जिन सूत्र से बाह्य हैं, जो अन्य पाखण्डी गुरु की उपासना करते हैं। नम्र और कष्टदायक कायक्लेश करते हैं। उनके ऊपर कृपा करना यह भी मिश्रानुकंपा है क्योंकि गृहस्थों की एक देशरूपता से धर्म में प्रवृत्ति है। वे सम्पूर्ण चारित्र रूप धर्म का पालन नहीं कर सकते, अन्य जनों का धर्म मिथ्यात्व से युक्त है। इस वास्ते गृहस्थ धर्म और अन्य धर्म दोनों के ऊपर दया करने को मिश्रानुकंपा कहते हैं।