शास्त्राध्ययन करना यह शिक्षा का अर्थ है जिनेश्वर का कहा गया शास्त्र पाप को नष्ट करने में निपुण है अतः उसे दिन-रात पढ़ना चाहिए ।
दीक्षा के अनन्तर निश्चय, व्यवहार रत्नत्रय तथा परमात्म तत्व के परिज्ञान के लिए उसके प्रतिपादक अध्यात्म शास्त्र की जब शिक्षा ग्रहण करता है वह शिक्षा काल है।
देश व सकल इन दोनों प्रकार के संयम के छेद की शुद्धि के अर्थ प्रायश्चित्त देकर संवेग और वैराग्यजनक परमागम के वचनों के द्वारा साधु का संवरण करते है वे निर्यापक हैं उन्हें ही शिक्षागुरु या सतगुरु भी कहते हैं …
मुनि धर्म की शिक्षा पाने के लिए जिन व्रत – नियमों का पालन किया जाता है वे शिक्षाव्रत कहलाते हैं। शिक्षाव्रत के चार भेद हैं- देशावकाशिक, सामायिक प्रोषधोपवास और वैयावृत्य या अतिथिसंविभाग ।
अग्नि शिखा में स्थित जीवों की विराधना न करके उन विचित्र अग्निशिखाओं पर से गमन करने को अग्निशिखा चारण ऋद्धि कहते है ।