निर्बाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि की सिद्धि के लिए साधु के द्वारा जो प्राणियों की पीड़ा से रहित एकान्त शून्यघर आदि में शय्यासन लगाया जाता है, वह विविक्त शय्यासन नाम का तप है अथवा जो मुनि रागद्वेष को उत्पन्न …
जो मुनि राग और द्वेष को उत्पन्न करने वाले आसन शय्या वगैरह का परित्याग करता है, अपने आत्मस्वरूप में रमता है और इंद्रियों के विषयों से विरक्त रहता है, उसके विविक्त शय्यासन नाम का पाँचवाँ उत्कृष्ट तप होता है विविक्त …
जो भली प्रकार ढका हो, वह संवृत कहलाता है। यहाँ संवृत ऐसे स्थान को कहते हैं जो देखने न आवें, इससे विपरीत स्थान विवृत है।
एकेंद्रिय, नारकी, देव इनके संवृत (दुरुपलक्ष) योनि है, दोइंद्रिय से चौइंद्रिय तक विवृत योनि है । तत्त्वार्थसूत्र/2/32सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ।=सचित, शीत और संवृत तथा इनकी प्रतिपक्षभूत अचित, उष्ण और विवृत तथा मिश्र अर्थात् सचित्तचित्त, शीतोष्ण और संवृत-विवृत ये उसकी अर्थात् जन्म की योनियाँ हैं …