सम्पूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको ‘सत् है’ ऐसा एकपने रूप में अर्थात् मात्र को ग्रहण करता है वह परसंग्रह (शुद्धसंग्रह) है।
किसी विवक्षिप्त कर्म का जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव विषयक सन्निकर्ष है, वह स्वस्थान सन्निकर्ष कहा जाता है और आठों कर्म विषयक सन्निकर्ष परस्थान सन्निकर्ष कहलाता है।
गुणों में परस्पर परिहार लक्षण विरोध इसलिए है, क्योंकि यदि गुणों का एक-दूसरे का परिहार करके अस्तित्व नहीं माना जायेगा तो उनके स्वरूप की हानि का प्रसंग आता है।