अहिंसादिक व्रत है और इनके पालन करने के लिए क्रोधादिक का त्याग करना शील है, इन दोनों के पालन करने में निर्दोष प्रवृत्ति करना शील- व्रतानतिचार है। शीलव्रतों में निरतिचार से ही तीर्थंकर नामकर्म बांधा जाता है। वह इस प्रकार …
निग्रहस्थान नहीं उठाने के अवसर पर निग्रहस्थान का उठा देना वक्ता का निरनुयोज्यानुप्रेक्षा नामक निग्रहस्थान है।
जिस प्रकृति का प्रत्यय नियम से सादि एवं अध्रुव तथा अन्तर्मुहूर्त आदि काल तक अवस्थित रहने वाला है, वह निरन्तर बंधी प्रकृति है। तीर्थंकर, आहारद्विक चारों आयु और ध्रुव बंधी सैंतालीस प्रकृतियाँ इन सब चौवन प्रकृतियों का निरन्तर बंध होता …