कामसेवन में आसक्त होना कुशील है अथवा शील यानी अपने आत्म-स्वभाव से विचलित होना कुशील है।
यह निर्ग्रन्थ साधु का एक भेद है। कुशील नामक निर्ग्रन्थ साधु दो प्रकार के हैंकषाय-कुशील और प्रतिसेवना-कुशील । जिन्होंने अन्य सभी कषायों को जीत लिया है, जो केवल संज्वलन कषाय के अधीन हैं ऐसे निर्ग्रन्थ साधु कषाय- कुशील कहलाते हैं। …
जो क्रोधादि कषायों से कलुषित हृदय वाले, व्रत, गुण और शील से रहित तथा संघ का अविनय करने वाले हैं वे कुशील साधु कहलाते हैं मुनियों को कुशील की संगति का निषेध किया है।
मिथ्यादर्शन के उदय के साथ होने वाला श्रुतज्ञान ही कुश्रुतज्ञान है अथवा चोर शास्त्र, हिंसा शास्त्र आदि तुच्छ और परमार्थशून्य अयोग्य उपदेश को श्रुताज्ञान या मिथ्याश्रुतज्ञान कहते हैं।