उत्पादपूर्व : श्रुतज्ञान के अंगप्रविष्ट में समागत चौदह पूर्वों में से प्रथम पूर्व राजवार्तिक/1/20/12/-74/11 तककालपुद्गलजीवादीनां यदा यत्र यथा च पर्यायेणोत्पादो वर्ण्यते तदुत्पादपूर्वं।=उत्पादपूर्व में जीव पुद्गलादि का जहाँ जब जैसा उत्पाद होता है उस सबका वर्णन है। श्रुतज्ञान के विस्तार हेतु देखें श्रुतज्ञान …
कायादि पर द्रव्यों में स्थिर भाव छोड़कर जो आत्मा को निर्विकल्प रूप से ध्याता है, उसे व्युत्सर्ग कहते हैं। बाहर में क्षेत्र वास्तु आदि का और अभ्यन्तर में कषाय आदि का अथवा नियत व अनियत काल के लिए शरीर का …
व्याख्यान करने की सामान्य पद्धति को उत्सर्ग पद्धति कहते हैं जैसे- सकल श्रुतधारियों को ध्यान होता है यह उत्सर्ग वचन है या वजवृषभनाराच नामक प्रथम संहनन से ही ध्यान होता है यह उत्सर्ग वचन है।