पाँचों इन्द्रियों को ज्ञान, वैराग्य और उपवास आदि के द्वारा वश में रखना इन्द्रिय – जय कहलाता है। यह पाँचों इन्द्रियों के भेद से पाँच प्रकार का है। यह साधु का मूलगुण है।
स्वसंवेदन ज्ञान, इन्द्रिय ज्ञान, स्मरण प्रत्यभिज्ञान, तर्क, सवार्थानुमान, बुद्धि मेधा आदि सब मतिज्ञान के प्रकार हैं। वह मतिज्ञान इन्द्रिय व मनरूप निमित्त से होता है।
योग्य क्षेत्र में स्थित रूपादि से युक्त पदार्थों के ग्रहण करने रूप शक्ति की उत्पत्ति के निमित्तभूत पुद्गल प्रचल की प्राप्ति को इन्द्रिय-पर्याप्ति कहते हैं ।
साता वेदनीय आदि पुण्य कर्म के उदय से जो इन्द्रिय जनित सुख प्राप्त होता है, उसे इन्द्रिय-सुख कहते हैं।
उपरोक्त मुनियों का तप के प्रभाव से वैमानिक देवों के इन्द्र रूप से उत्पाद होना ।