जिसका कुछ नहीं है वह अकिंचन है और उसका भाव या कर्म अकिंचन्य है। जो शरीर प्राप्त हुआ है उसमें भी संस्कार या मूर्छा का त्याग करने के लिए ‘यह मेरा है’ इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना अकिंचन्य …
क्रोध बढ़ाने वाले, अत्यन्त अपमानजनक, कर्कश और निन्दनीय वचनों को सुन कर जो साधु विचलित नहीं होते और प्रतिकार करने में समर्थ होते हुए भी उसे शान्त-भाव से सहन करते हैं और मन में कषाय – भाव नहीं आने देते …