आकिंचन्य धर्म
जिसका कुछ नहीं है वह अकिंचन है और उसका भाव या कर्म अकिंचन्य है। जो शरीर प्राप्त हुआ है उसमें भी संस्कार या मूर्छा का त्याग करने के लिए ‘यह मेरा है’ इस प्रकार के अभिप्राय का त्याग करना अकिंचन्य है। अकिंचन्य धर्म स्वशरीर से ममत्व घटाने के लिए और शौचकर्म लोभ की निवृत्ति के लिए है। यही दोनों में अन्तर है।