“11”
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मूल ही है मूल ज्यों शाखादि द्रुम परिवार का। | अष्ट पाहुड़ | दर्शन पाहुड़ | 11 | ||
बस उस तरह ही मुक्तिमग का मूल दर्शन को कहा ।।११।। | अष्ट पाहुड़ | दर्शन पाहुड़ | 11 | ||
संयम सहित हों जो श्रमण हों विरत परिग्रहारंभ से । | अष्ट पाहुड़ | सूत्र पाहुड़ | 11 | ||
वे वन्द्य है सब देव-दानव और मानुष लोक से ।।११।। | अष्ट पाहुड़ | सूत्र पाहुड़ | 11 | ||
विनयवत्सल दयादानरु मार्ग का बहुमान हो । | अष्ट पाहुड़ | चारित्र पाहुड़ | 11 | ||
संवेग हो हो उपागूहन स्थितिकरण का भाव हो ।। ११ ।। | अष्ट पाहुड़ | चारित्र पाहुड़ | 11 | ||
जो देखे जाने रमे निज में ज्ञानदर्शन चरण से। | अष्ट पाहुड़ | बोध पाहुड़ | 11 | ||
उन ऋषीगण की देह प्रतिमा वंदना के योग्य है ।।११।। | अष्ट पाहुड़ | बोध पाहुड़ | 11 | ||
मानसिक देहिक सहज एवं अचानक आ पड़े। | अष्ट पाहुड़ | भाव पाहुड़ | 11 | ||
ये चतुर्विध दुख मनुजगति में आत्मन् तूने सहे ।। ११ ।। | अष्ट पाहुड़ | भाव पाहुड़ | 11 | ||
कुज्ञान में रत और मिथ्याभाव से भावित श्रमण । | अष्ट पाहुड़ | मोक्ष पाहुड़ | 11 | ||
मद मोह से आच्छन्न भव भव देह को ही चाहते ।। ११ ।। | अष्ट पाहुड़ | मोक्ष पाहुड़ | 11 | ||
ज्ञान- दर्शन – चरण तप संयम नियम पालन करें । | अष्ट पाहुड़ | लिंग पाहुड़ | 11 | ||
पर दुःखी अनुभव करें तो जावें नियम से नरक में ।।११।। | अष्ट पाहुड़ | लिंग पाहुड़ | 11 | ||
जब ज्ञान, दर्शन, चरण, तप सम्यक्त्व से संयुक्त हो । | अष्ट पाहुड़ | शील पाहुड़ | 11 | ||
तब आतमा चारित्र से प्राप्ति करे निर्वाण की ।। ११ ।। | अष्ट पाहुड़ | शील पाहुड़ | 11 | ||
व्यवहारनय अभूतार्थ दर्शित, शुद्धनय भूतार्थ है । | समयसार | पूर्वरंग | 11 | ||
भूतार्थ आश्रित आतमा, सुदृष्टि निश्चय होय है ॥११॥ | समयसार | पूर्वरंग | 11 | ||
उत्पाद-व्यय से रहित केवल सत् स्वभावी द्रव्य है। | पंचास्तिकाय संग्रह | षट द्रव्य व्याख्यान रूप पीठिका | 11 | ||
द्रव्य की पर्याय ही उत्पाद-व्यय-प्रुवता धरे।।११॥। | पंचास्तिकाय संग्रह | षट द्रव्य व्याख्यान रूप पीठिका | 11 | ||
प्राप्त करते मोक्षसुख शुद्धोपययोगी आतमा। | प्रवचन सार | ज्ञान तत्त्व प्रज्ञापन – मंगलाचरण व भूमिका | 11 | ||
पर प्राप्त करते स्वर्गसुख हि शुभोपयोगी आतमा।।११।। | प्रवचन सार | ज्ञान तत्त्व प्रज्ञापन – मंगलाचरण व भूमिका | 11 | ||
अतीन्द्रिय असहाय केवलज्ञान ज्ञान स्वभाव है । | नियमसार अनुशीलन | जीव | 11 | भेद प्रभेद | |
सम्यक् असम्यक् पने से यह द्विविध ज्ञान विभाव है ।। ११ ।। | नियमसार अनुशीलन | जीव | 11 | भेद प्रभेद | |
इन्द्रियरहित, असहाय, केवल वह स्वभाविक ज्ञान है । | नियमसार | जीव | 11 | भेद प्रभेद | |
दो विधि विभाविकज्ञान — सम्यक् और मिथ्याज्ञान है ।।११।। | नियमसार | जीव | 11 | भेद प्रभेद |
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