हिंसा
1. रागादि भावों की उत्पत्ति ही हिंसा है। 2. रागादि प्रमाद भावों के वश से उठने-बैठने आदि क्रियाओं में जीवों का घात हो या न भी हो तो भी हिंसा है क्योंकि कषाय युक्त आत्मा पहले अपने द्वारा अपना घात करता है बाद में दूसरे प्राणियों का घात हो अथवा न हो । रागादि प्रमाद भाव के वशीभूत होकर जीव के प्राणों का वियोग करना या उसे पीड़ा पहुँचाना हिंसा है उसके दो रूप हैं दूसरे के प्राणों का घात करने रूप द्रव्य हिंसा है और दूसरे के प्राणों को घात करने का विचार करने रूप भाव हिंसा है। हिंसा चार प्रकार से होती है संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी। बिना किसी उद्देश्य के संकल्प रूप प्रमाद भाव से की जाने वाली हिंसा संकल्पी-हिंसा कहलाती है। भोजन आदि बनाने तथा घर की सफाई आदि करने रूप घरेलू कार्यों में होने वाली हिंसा को आरम्भी-हिंसा कहते हैं। धन- पैसा कमाने रूप व्यापार आदि में होने वाली हिंसा को उद्योगी हिंसा कहते हैं तथा अपनी अपने आश्रितों की अथवा अपने देश की रक्षा के लिए युद्ध आदि में की जाने वाली हिंसा को विरोधी-हिंसा कहते हैं । बुद्धिमान मनुष्य को संकल्पी हिंसा का सदैव त्याग करना चाहिए क्योंकि असंकल्पपूर्वक बहुत से जीवों के घात में निमित्त बनने वाले किसान की अपेक्षा जीवों को मारने का संकल्प करके उनको नहीं मार पाने वाला भी धीवर (मछुआरा) विशेष पाप से युक्त माना गया है।