स्वचारित्र
जो परद्रव्यात्मक भावों से रहित स्वरूप वाला वर्तता हुआ, दर्शन ज्ञान रूप भेद को आत्मा से अभेद रूप आचरता है, वह स्वचारित्र आचरता है। निज शुद्धात्मा के संवेदन में अनुचरण करने रूप अथवा आगम भाषा में वीतराग परम सामायिक नाम वाला अथवा समता भाव रूप स्वचारित्र होता है। पहले सविकल्पावस्था में ‘मैं ज्ञाता हूँ’ ‘मैं दृष्टा हूँ’ ऐसे जो दो विकल्प रहते थे वे अब इस निर्विकल्प समाधि काल में अनन्त ज्ञानादि गुण स्वभाव होने के कारण आत्मा से अभिन्न ही आचरण करता है ।