स्थिति बंधापसरण
केवल भाषार्थ “प्रथमोपशम सम्यक्त्व को सन्मुख भया मिथ्यादृष्टि जीव सो विशुद्धता की बृद्धिकरि वर्द्धमान होता सतां प्रयोग्यलब्धि का प्रथम समय तैं लगाया पूर्व स्थिति बन्धैक 1. संख्यातवें भाग मात्र अन्तः कोटा कोटि सागर 363 प्रमाण आयु बिना सात कर्मनिका स्थिति बन्ध करे है तिस अन्तः कोटाकोटी सागर स्थिति बंध तैं पल्य का संख्यातवां भाग मात्र घटता स्थिति बंध अन्तर्मुहूर्त पर्यंत समानता किया करे। बहरि तातैं पल्य का संख्यातवाँ भाग मात्र घटता स्थिति बन्ध अन्तर्मुहूर्त पर्यंत करे ऐसे क्रम से संख्यात स्थिति बंधपरसानि करि पृथक्त्व सौ(800 या 900) सागर घटै पहिला स्थिति बन्धापसरण स्थान होई । 2. बहुरि तिस हो क्रम से तिस तैं भी पृथकत्व सौ घटे दूसरा स्थिति बन्धापसरण स्थान ही है। ऐसे इस ही क्रमतैं इतना – इतना स्थिति बन्ध घटैं एक-एक स्थान होई । ऐसे स्थिति बन्धापसरण के 34 स्थान होई । चौंतीस स्थान निविषे कैसे प्रकृति का बन्ध व्युच्छेद हो है सो कहिये। पहले नरकायु का व्युच्छिप्ति स्थान है जहाँ तैं लगाय उपशम सम्यक्त्व पर्यन्त नरकायु का बन्ध न होई ऐसे ही आगे जानना 2. दूसरा तिर्यंचायु का है इसी क्रम से 3. मनुष्यायु 4. देवायु 5. नरकगति, व आनुपूर्वी 6. संयोग रूप सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण संयोग रूप अर्थात् तीनों का युगपत् बंध 7. संयोग रूप सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक 8. संयोग रूप बादर अपर्याप्त साधारण 9. संयोग रूप बादर अपर्याप्त प्रत्येक 10. संयोग रूप बेइन्द्रिय अपर्याप्त 11. संयोग रूप तेइन्द्रिय अपर्याप्त 12. संयोग रूप चौइन्द्रिय अपर्याप्त 13. संयोग रूप असंज्ञी पंचेन्द्रीय अपर्याप्त 14. संयोग रूप संज्ञी पंचेन्द्रीय पर्याप्त 15. संयोग रूप सूक्ष्म पर्याप्त साधारण 16. संयोग रूप सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येक 17. संयोग रूप बादर पर्याप्त साधारण 18. संयोग रूप बादर पर्याप्त प्रत्येक एकेन्द्रीय आतप स्थावर 19. संयोग रूप बेइन्द्रिय पर्याप्त 20. संयोग रूप तेइन्द्रिय पर्याप्त 21. चौइन्द्रीय पर्याप्त 22. असंज्ञी पंचेन्द्रीय पर्याप्त 23. संयोग रूप तिर्यंच व आनुपूर्वी तथा उद्योत 24. नीच गोत्र 25. संयोग रूप अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग- दुस्वर अनादेय 26. हुंडकसंस्थान सृपाटिका संहनन 27. नपुंसकवेद 28. वामन संस्थान कीलित संहनन 29. कुब्जक संस्थान अर्ध नाराच संहनन 30. स्त्री वेद 31. स्वाति संस्थान नाराच संहनन 32. न्यगोध्र संस्थान वज्र नाराच संहनन 33. सयोग रूप मनुष्य जाति आनुपूर्वी औदारिक शरीर व अंगोपांग वज्रवृषभनाराच संहनन 34. संयोग रूप अस्थिर अशुभ अयश ।।14 ।। अरति शोक असाता ऐसे ये चौंतीस स्थान भव्य और अभव्य के समान ही हैं ।।15।। मनुष्य तिर्यंचनिकैं तो सामान्योक्त चौंतीस स्थान पाइये हैं जिनके 117 बन्ध योग्य में से 46 की व्युच्छिति भई अवशेष 71 बान्धिये है ।।16।।