स्थापना
जिसके द्वारा निर्णीत रूप से पदार्थ स्थापित किया जाता है वह स्थापना है अथवा काष्ट कर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म और अक्षनिक्षेप आदि में यह वह है’ इस प्रकार स्थापित करने को स्थापना कहते हैं वह दो प्रकार की है- सद्भाव स्थापना तथा असद्भाव स्थापना अथवा तदाकार स्थापना और अतदाकार स्थापना | धारण, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये सब एकार्थवाची शब्द हैं | भाव – निक्षेप के द्वारा कहे गए अर्थात् वास्तविक पर्याय से परिणत इन्द्र आदि के समान बनी हुई काष्ठ पाषाण आदि की प्रतिमा में उन इन्द्र आदि की स्थापना करना सद्भाव या तदाकार स्थापना है जैसे तीर्थंकर आदि की वीतराग प्रतिमा एवं मुख्य आकारों से रहित केवल वस्तु में ‘यह वही है’ ऐसी स्थापना कर लेना असद्भाव या अतदाकार स्थापना है। जैसे- अक्ष वराट आदि की स्थापना, जुआ खेलने के या शतरंज आदि के पांसे अर्थ कहलाते हैं तथा वराटक अर्थ है कौड़ी या कपद्रिका) ।