समंतभद्र
आपको श्रुतकेवलियों के समकक्ष माना जाता है। तथा प्रथम जैन संस्कृति कवि एवं स्तुतिकार, वादी, वाग्मी, गमक, तार्किक तथा युग संस्थापक माना जाता है। आप उरगपुर के नागवंशी चोल नरेश कीलिकवर्मन के कनिष्ठ पुत्र शान्तिवर्मन होने से क्षत्रिय कुलोत्पन्न थे। आपको भस्मक व्याधि हो गई थी। धर्म और साहित्य को इनसे बहुत कुछ प्राप्त होने वाला है, यह जानकर गुरु ने इन्हें समाधिमरण की आज्ञा न देकर लिंग छेद की आज्ञा दी। आप पहले पुण्ड्रवर्द्धनगर में बौद्ध भिक्षु हुए, फिर दशपुर नगर में परिव्राजक हुए और अंत में दक्षिण देशस्थ कांची नगर में शैव तापसी बनकर वहाँ के राजा शिवकोटि के शिवालय में रहते हुए शिव पर चढ़े नैवेद्य का भोग करने लगे। पकड़े जाने पर आपके स्वयंभू स्तोत्र के पाठ द्वारा शिवलिंग में से चन्द्रप्रभु भगवान की प्रतिमा प्रकट हुई, जिससे प्रभावित होकर शैवराजा शिवकोटि दीक्षा धारण कर उनके शिष्य हो गये । आपकी रचनाओं में 11 प्रसिद्ध है। बृहत् स्वयंभूस्तोत्र, स्तुति विद्या देवागम स्तोत्र, युक्त्यानुशासन, तत्त्वानुशासन, जीव सिद्धि, प्रमाण पदार्थ, कर्म प्राभृत टीका, गन्धहस्ति महाभाष्य, रत्नकरण्डक श्रावकाचार, प्राकृतव्याकरण आदि इनके द्वारा रचित कृतियाँ हैं।