संवर
आस्रव का निरोध ही संवर है अथवा जिस सम्यग्दर्शनादि परिणामों से अथवा गुप्ति समिति आदि परिणामों से मिथ्यादर्शन आदि परिणाम रोके जाते हैं वे रोकने वाले परिणाम संवर कहलाते हैं। जिस प्रकार नाव के छिद्र बंद हो जाने पर उसमें जल प्रवेश नहीं करता इसी प्रकार मिथ्यात्व आदि का अभाव हो जाने पर जीव में कर्मों का संवर होता है अर्थात् नवीन कर्मों का आस्रव नहीं होता। संवर दो प्रकार का है भाव संवर और द्रव्य संवर। आत्मा का जो परिणाम कर्म के आस्रव को रोकने में कारण है उसे भाव संवर कहते हैं। पाँच व्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषह तथा अनेक प्रकार का चारित्र ये सब भाव संवर हैं तथा जो नवीन द्रव्य कर्मों के आगमन का अभाव है। वह द्रव्य संवर है। राग द्वेष मोह का अभाव जिसका लक्षण है, वह निश्चय संवर है तथा सम्यक्त्व, देशव्रत, महाव्रत, कषायों को जीतना और योग का अभाव ये सब हेतु व्यवहार संवर के हैं।