शुभोपयोग
जो जिनेन्द्र भगवान को जानता है, सिद्धों और साधुओं की श्रद्धा करता है अर्थात पंचपरमेष्ठी में अनुरक्त है तथा जीवों के प्रति अनुकम्पा युक्त है उसके यह शुभोपयोग है अथवा शुद्धोपयोगी परम उपेक्षा संयम में असमर्थ मुनि शुद्धात्म भावना के सहकारी भूत जो प्रासुक आहार रूप उपकरण आदि ग्रहण करता है सो अपवाद मार्ग है उसी को व्यवहार नय कहते है। व्यवहार नय एक देश परित्याग अपहृत संयम, सराग चारित्र और शुभोपयोग ये सब एकार्थवाची है। गृहस्थ की अपेक्षा यथासंभव सराग सम्यक्त्वपूर्वक दान पूजादि रूप शुभ अनुष्ठान के द्वारा तथा तपोधन या साधु की अपेक्षा मूल व उत्तर गुण आदि रूप शुभ अनुष्ठान के द्वारा परिणत हुआ आत्मा शुभोपयोगी कहलाता है।