शील
1. व्रतों की रक्षा को शील कहते हैं अथवा जिसके द्वारा व्रतों की रक्षा की जाय उसको शील कहते हैं। तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत ये सात शील कहलाते है । 2. पंचेन्द्रिय के विषयों से विरक्त होना बह्मचर्य या शील कहलाता है शील की प्ररूपणा दो प्रकार से की गई है- स्वद्रव्य परद्रव्य की अपेक्षा एवं स्त्री संसर्ग की अपेक्षा । (स्व- पर द्रव्य की अपेक्षा) तीन योग (शुभ मन वचन काय) तीन करण (अशुभ मन वचन काय ) चार संज्ञाएँ, पांच इन्द्रियाँ, दस पृथिवी आदि काय, दस धर्म- इनको परस्पर गुणित करने से अठारह हजार शील के भेद बनते हैं। (स्त्री संसर्ग की अपेक्षा) काष्ठ, पाषाण, चित्रांकन (तीन प्रकार अचेतन स्त्री सम्बन्धी ) मन व काय (3X2 = 6 ) X कृत कारित अनुमोदना (6X 3=18) पाँच इन्द्रियाँ (18X5=90) ये अचेतन स्त्री संसर्ग सम्बन्धी भेद-प्रभेद हुए। देवी, मनुष्यनी, तिर्यंचिनी (तीन प्रकार चेतन स्त्री सम्बन्धी ) X मन वचन काय (3X3 = 9 ) X कृत कारित अनुमोदना (9X3=27) पाँच इन्द्रिय (27×5 = 135) x द्रव्य व भाव (135×2=270) x चार संज्ञा (270×4 = 1080) सोलह कषाय (1080×16=17280) ये चेतन स्त्री संसर्ग सम्बन्धी भेद प्रभेद हुए। इस प्रकार कुल (720+ 17280=18000) शील के भेद हुए।