शब्दाद्वैतवाद
समस्त योगज अथवा अयोगज प्रत्यक्ष उल्लेख करने वाले ही अवभासित होते हैं क्योंकि बाह्य या आध्यात्मिक अर्थों में उत्पन्न होने वाले प्रत्येक शब्द से अनुविद्ध ही उत्पन्न होता है। शब्द के संस्पर्श के अभाव में ज्ञानों की प्रकाशमानता दुर्घट है, बन नहीं सकती। वाग्रूपता नित्य और प्रत्यवमर्शिनी है, उसके अभाव में ज्ञानों का कोई रूप शेष नहीं रहता। सम्यगे कान्त की अपेक्षा- इसी प्रकार परम द्रव्यार्थिकनय के अभिप्राय का विषय परम सत्ता, महासत्ता है। इसी अपेक्षा से एक ही अद्वितीय ब्रह्म है। यहाँ नाना अनेक कुछ भी नहीं है। इस प्रकार का प्रतिपादन किया जाता है क्योंकि सद्रूप से चेतन और अचेतन पदार्थों में भेद नहीं है यदि भेद माना जाये तो सत् से भिन्न होने के कारण वे सब असत् हो जायेंगे।