विरत
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फिर वह श्रावक विशुद्धि प्रकर्ष से समस्त गृहस्थी सम्बन्धी परिग्रहों से मुक्त हो निर्ग्रन्थता का अनुभव कर महाव्रती बन जाता है। उसी को विरत कहा जाता है। वह सम्यग्दृष्टि श्रावक ही प्रत्यख्यानावरण के क्षयोपशम निमित्तिक परिणामों की विशुद्धिवश विरत (संयत) संज्ञा को प्राप्त होता है।
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