विनय
पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय है अथवा रत्नत्रय को धारण करने वाले पुरुषों के प्रति विनम्र वृत्ति धारण करना विनय है। निश्चय और व्यवहार के भेद से विनय दो प्रकार की है। स्वकीय निश्चय रत्नत्रय की शुद्धि निश्चय विनय है और उसके आधारभूत पुरुषों अर्थात् आचार्य आदि की भक्ति का भाव व्यवहार विनय है। लोकानुवृत्ति विनय, अर्थनिमित्तक विनय, कामतन्त्र विनय, भय विनय और मोक्ष विनय इस प्रकार विनय पाँच प्रकार की है किसी पुरुष के अनुकूल बोलना तथा देश-काल के योग्य उसे अपना द्रव्य देना लोकानुवृत्ति विनय है अपने प्रयोजन या स्वार्थवश हाथ जोड़ना आदि अर्थनिमित्तक विनय है काम पुरुषार्थ के निमित्त -रहित वचन बोलना वाचिक विनय है। पाप कार्यों में, विकथा आदि सुनने में या सम्यकत्व की विराधना में जाते हुए मन को रोकना आदि धर्मोपदेश व सम्यक्त्व ज्ञान आदि मन को लगाना मानसिक विनय है। आचार एवं विनय में अन्तर है सम्यग्दर्शन में से दोषों को दूर करने तथा उसमें गुणों को उत्पन्न करने के लिए जो प्रयत्न किया जाता है उसे दर्शन विनय विनय करना कामतन्त्र विनय है भय के कारण विनय करना भय विनय है। मोक्ष विनय पाँच प्रकार की है- ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय । बहुत आदर के साथ मोक्ष के लिए ज्ञान का ग्रहण करना, अभ्यास करना, स्मरण करना आदि ज्ञान विनय है। शंकादि दोषों से रहित तत्वार्थ का श्रद्धान करना दर्शन विनय है अथवा अरहंत सिद्ध, इनकी प्रतिमाएँ श्रुत ज्ञान जिनधर्म, आचार्य उपाध्याय, साधु रत्नत्रय, आगम एवं सम्यग्दर्शन में भक्ति व पूजा आदि रखना इनका महत्व बताना मिथ्यामतों का निराकरण करना इनकी असादना का परिहार करना यह सब दर्शन विनय है ज्ञान और दर्शन से युक्त पुरुष के दुश्चर चारित्र का वर्णन सुनकर रोमांच आदि के द्वारा अन्तर्भक्ति प्रगट करना, प्रणाम करना, मस्तक पर अंजुलि रखकर आदर प्रगट करना एवं उसका मानपूर्वक अनुष्ठान करना चारित्र विनय है । तप में और तप करने में अपने से जो ऊँचा है, उसमें भक्ति रखना तप विनय है। उनके अतिरिक्त जो छोटे तपस्वी हैं, उनकी तथा चारित्रधारी मुनियों की भी अवहेलना नहीं करना यह तप विनय है। आचार्य आदि के समक्ष आने पर खड़े हो जाना, उनके पीछे चलना, नमस्कार करना तथा उनके परोक्ष में भी मन, वचन, काय से नमस्कार करना, गुणों का कीर्तन करना, स्मरण करना आदि उपचार विनय है। कायिक विनय, वाचिक विनय और मानसिक विनय के भेद से विनय तीन प्रकार की है। साधु को आते देखकर आसन से उठ खड़े होना, अंजुलि मस्तक पर लगाकर नमस्कार करना, उनके पीछे खड़े रहना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनसे नीचे बैठना, उन्हें आसन देना, पुस्तकादि उपकरण देना, आज्ञा का अनुसरण करना आदि प्रकार से जो गुरूओं की एवं अन्य साधुओं की शरीर से यथायोग्य सेवा करना सो सब कायिक विनय है। सम्मानजनक वचनों से बोलना, हित, मित, मिष्ठ बोलना, आगम के अनुसार बोलना कठोरता रहित सावद्य रहित, अभिमान कहते हैं और शंकादि दोषों के दूर हो जाने पर तत्वार्थ श्रद्धान में प्रयत्न करने को दर्शनाचरण कहते हैं काल शुद्धि और ज्ञान के आठ अंगों के विषय में प्रयत्न करने को ज्ञान विनय और तन शुद्धि आदि के हो जाने पर श्रुत का अध्ययन करने के लिए प्रयत्न करने को अथवा अध्ययन का साधनभूत पुस्तकादि सामग्री के लिए प्रयत्न करने को ज्ञानाचरण कहते हैं। व्रतों को निर्मल बनाने के लिए समिति आदि में प्रयत्न करना चारित्र विनय एवं समिति आदि के सिद्ध हो जाने पर व्रतों की वृद्धि आदि के लिए प्रयत्न करना चारित्राचार है।