लौकिक
जो जीव निर्ग्रन्थ दीक्षा रूप में दीक्षित होने के कारण संयम, तप संयुक्त हो, यदि वह ऐहिक कार्यों (ख्याति, पूजा, लाभ के निमित्त ज्योतिष, मंत्र-तंत्र आदि) सहित वर्तता हो, तो उसे लौकिक कहा गया है। लौकिक मनुष्यों की संगति से मनुष्य अधिक बोलने वाले बक्कड़, कुटिल परिणामी और दुष्ट भावों से अत्यन्त क्रूर हो जाते हैं। इसलिए लौकिक जनों की संगति मन-वचन- काय से छोड़ देने चाहिए । लोगों के संसर्ग से वचन की प्रवृत्ति होती है, उससे मन की व्यग्रता होती है तथा चित्त की चंचलता से चित्त में नाना विकल्प प्रगट होते हैं। इसलिए योगी, लौकिक जनों के संसर्ग का त्याग करें।