भावना
जिनका बार- बार अनुशीलन किया जाता है वे भावना है अथवा जाने हुए अर्थ को पुनः पुनः चिन्तन करना भावना है पाँच श्रेष्ठ भावनाएँ हैं- तपो भावना, श्रुत भावना, सत्व भावना, एकत्व भावना और धृतिबल भावना । अनशन आदि बारह प्रकार के निर्मल तप को करना तपोभावना है इससे रत्नत्रय में स्थिरता आती है चारों अनुयोग रूप आगम का अभ्यास करना श्रुतभावना है इससे सम्यग्ज्ञान दर्शन, तप संयम आदि गुणों की प्राप्ति होती है मूल और उत्तर गुण के अनुष्ठान में प्रगाढ़ वृत्ति होना सत्त्व भावना है घोर उपसर्ग ओर परीषह आने पर भी पाण्डव आदि की भाँति उसको दृढ़ता से मोक्ष की प्राप्ति होती है यही सब भावना का फल है ज्ञानदर्शन लक्षण वाला शाश्वत एक आत्मा ही मेरा है शेष सब संयोग लक्षण वाले भाव मुझसे बाह्य है यह एकत्व भावना है स्वजन एवं परिजन से निर्मोहपना होना इस भावना का फल है मान-अपमान में अशनपान आदि में यथालाभ में समता रखना सन्तोष भावना है आत्म सुख में तृप्ति और विषय सुख से निवृत्ति इसका फल है मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य ये चार भावनाएँ, वैराग्य भावनाएँ, महाव्रतों की पाँच-पाँच भावनाएँ और सोलह कारण भावनाएँ आदि भी उत्तम है कादर्पी (कामचेष्टा रूप ) कैल्विषी (क्लेश कारिणी) आभियोगिकी (युद्ध भावना ) आसुरी (सर्वभक्षणी) और संमोही ( कुटुम्ब मोहिनी) ये पाँच भावनाएँ कुत्सित व त्याज्य मानी गयी है।