भव परिवर्तन
संसारी जीव ने नरक की छोटी सी आयु से लेकर ग्रैवेयक विमान तक आयुक्रम से अनेक बार भ्रमण किया है। नरक गति में जघन्य आयु दस हजार वर्ष है। दस हजार वर्ष की आयु के साथ कोई जीव प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया, पुनः उसी आयु को लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ और मर गया। इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार दस हजार वर्ष की आयु लेकर प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ फिर एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर वहीं उत्पन्न हुआ, फिर दो समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक – एक समय बढ़ाते-बढ़ाते नरक गति की उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर पूर्ण करता है। फिर तिर्यंच गति में अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु लेकर उत्पन्न हुआ और फिर पहले की तरह अन्तर्मुहूर्त के जितने समय हैं उतनी बार अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ। फिर एक – एक समय बढ़ाते – बढ़ाते तिर्यंच गति की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य पूरी करता है। फिर मनुष्य गति में उत्पन्न होकर तिर्यंच गति के समान अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु से लेकर तीन पल्य की उत्कृष्ट आयु क्रमशः बढ़ाते-बढ़ाते पूरी करता है। फिर देवगति में उत्पन्न होकर नरकगति के समान आयु को क्रमशः पूर्ण करता है। देवगति में इतनी विशेषता है कि वहाँ तेतीस सागर न होकर इकतीस सागर की आयु क्रमशः पूर्ण करता है क्योंकि मिथ्यादृष्टि की उत्पत्ति ग्रैवेयक तक ही होती है जहाँ उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर है। इस प्रकार चारों गतियों की आयु को क्रम से प्राप्त करके पूर्ण करना यह भव- परिवर्तन’ है ।