भक्त प्रत्याख्यान
जिस सल्लेखना में स्वयं व दूसरे के द्वारा वैयावृत्ति की अपेक्षा रहती है उसे भक्त प्रत्याख्यान सल्लेखना कहते हैं। भक्त प्रत्याख्यान करने वाला क्षपक ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि मैं हिंसा आदि पाँचों पाप का त्याग करता हूँ मेरे सब जीवों में समता भाव है किसी के साथ भी मेरा वैर-भाव नहीं है इसलिए मैं सर्व आकांक्षाओं को छोड़कर समाधि को प्राप्त होता हूँ। मैं सब अन्न – पान आदि आहार को, आहार संज्ञा को, सभी आशाओं को, कषायों को और सब पदार्थों से ममत्व-भाव का त्याग करता हूँ। जीवन शेष रहने का सन्देह होने पर तो उपसर्ग टलने पर पारणा कर लूंगा ? ऐसा आहार त्याग करता है और मरण निश्चित होने पर सर्वथा आहार का त्याग करता है। सल्लेखना विधि के अनुरूप क्षपक पहले क्रम- क्रम से आहार को छोड़कर दूध व छाछ को बढ़ावे और बाद में दूध आदि को छोड़कर कांजी व गरम पानी को बढ़ावे । तत्पश्चात उष्ण जलपान का भी त्याग करके और शक्ति के अनुसार उपवास करके पंचनमस्कार मंत्र को मन में धारण करता हुआ शरीर को छोड़े। आयुष्काल अधिक होने पर भक्त प्रत्याख्यान उत्कृष्ट काल बारह वर्ष प्रमाण कहा गया है। जघन्य काल का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त मात्र है इन दोनों के अन्तरालवर्ती सर्व काल प्रमाण मध्यम है भक्त प्रत्याख्यान मरण ही इस पंचम काल में उपयुक्त है क्योंकि इंगिनीमरण भी प्रायोपगमन मरण विशेष संहनन वालों में ही होता है ।