प्रलय
अवसर्पिणी काल में दुखमा दुखमा काल के उनचास दिन कम इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत होने पर जीवों को भयदायक घोर प्रलयकाल आता है उनचास दिनों तक क्रमशः सात-सात दिन तक लगातार पर्वत व शिलाओं को चूर्ण कर देने वाली संवर्तक वायु गम्भीर गर्जना से युक्त मेघों से क्षार जल, विष – जल, धूम, धूलि वज्र की ज्वाला की वर्षा होती है। वृक्ष और पर्वतों के भंग होने से मनुष्य और तिर्यंच वस्त्र और स्थान की अभिलाषा करते हुए बहुत प्रकार से विलाप करते हैं इस समय पृथक-पृथक संख्यात और सम्पूर्ण बहत्तर युगल गंगा सिंधु नदियों की वेदी और विजयार्ध वन में प्रवेश करते हैं देव और विधाधर दया से द्रवीभूत होकर मनुष्य व तिर्यंचों में से संख्यात जीव राशि को उन प्रदेशों में ले जाकर रखते हैं भरत क्षेत्र के भीतर आर्यखंड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित वृद्धिगत एकयोजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है उस समय आर्यखंड शेष भूमियों के समान दप्रण तल के सदृशकान्ति से स्थित और धूलि एवं कीचड़ की कलुषता से रहित हो जाती है वहाँ पर उपस्थित मनुष्यों की ऊँचाई एक हाथ, आयु सोलह या पन्द्रह वर्ष प्रमाण है बल आदि भी तद्नुसार ही होता है ।