प्रमत्त संयत
जो पुरुष सकल मूलगुणों से और व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद से रहता है, अतएव चित्रल आचरणीय वह प्रमत्तसंयत कहलाता है। प्रकर्ष से भव्य जीव को प्रमत्त कहते हैं और अच्छी तरह से विरत या संयम को प्राप्त हुए जीवों को संयत कहते हैं। जो प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं उन्हें प्रमत्तसंयत कहते हैं। क्रोधादि संज्ज्वलन कषाय और हास्यादि नोकषाय इनके उदय से उत्पन्न होने के कारण जिस संयम में मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद पाया जाता है, वह प्रमत्त विरत कहलाता है। संयमासंयम को प्राप्त वही सम्यग्दृष्टि जब पंचमहाव्रतों में वर्तता है तब वह दुःस्वप्न आदि व्यक्त व अव्यक्त प्रमाद हित होता हुआ, छठे गुणस्थान- वर्ती ता है। प्रमत्तसंयत गुणस्थान मनुष्य संभव है। परन्तु आहारक ऋद्धि सहित याप्त और अपर्याप्त (निवृतपर्याप्त) दोनों होते हैं। देव आयु के अतिरिक्त अन्य तीन आयु जिनने पहले बाँध ली है, उसके संयम की प्राप्ति नहीं हो सकती। द्रव्य स्त्री संयत नहीं हो सकती ।