प्रज्ञा परीषह जय
बहुत ज्ञानवान होते हुए भी अपने शास्त्र ज्ञान का अभिमान नहीं करना प्रज्ञापरीषह जय कहलाता है। मैं अंग, पूर्व और प्रकीर्णक शास्त्रों में विशारद हूँ तथा शब्दशास्त्र, न्यायशास्त्र और अध्यात्म शास्त्र में निपुण हूँ। मेरे सामने दूसरे जन सूर्य की प्रभा से अभिभूत हुए जुगनू के समान बिलकुल सुशोभित नहीं होते हैं। इस प्रकार के ज्ञान-मद को जीत लेना प्रज्ञा परीषह जय है एक ही आत्मा में श्रुतज्ञान की अपेक्षा प्रज्ञा परीषह जय और अवधिज्ञान आदि के अभाव अपेक्षा अज्ञान परीषह रह सकते हैं।