पुण्य
जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होती है, वह पुण्य है अथवा दान पूजा आदि रूप जीव के शुभ परिणाम को भाव पुण्य कहते हैं तथा दान पूजा आदि क्रियाओं से उपार्जित किया जाने वाला शुभ कर्म द्रव्य पुण्य है । सम्यकत्व, श्रुतज्ञान व्रतरूप परिणाम तथा कषाय के निग्रहरूप गुणों से परिणत आत्मा पुण्य जीव है। अपने द्वारा किए गये शुभ व अशुभ दोनों ही कर्म जीव को बाँधते हैं इसलिए पुण्य और पाप दोनों का आस्रव बंध के अन्तर्गत रखा गया है। परन्तु जीव को अपनी पूरी शक्ति और पूरे उत्साह के साथ सदा सत्कर्म करने का उपदेश भी दिया है। अर्हन्त आदि पाँचों परमेष्ठी में भक्ति, समस्त जीवों पर करुणा और पवित्र आचरण में प्रीति करने से पुण्य का संचय होता है । पुण्य दो प्रकार है- सातिशय पुण्य और निरतिशय पुण्य। सम्यग्दृष्टि का पुण्य सातिशय है जो परस्परा से मोक्ष का कारण है अतः कथंचित् इष्ट है तथा मिथ्यादृष्टि के द्वारा किया गया पुण्य निरतिशय है जो मात्र स्वर्ग सम्पदा का कारण है अतः हेय है। ।