पीत लेश्या
जो अपने कर्त्तव्य व अकर्त्तव्य और सत्य असत्य को जानता हो, समदर्शी हो, दया और दान में रत हो, मृदुस्वभावी हो और ज्ञानी हो, ये सब तेजो लेश्या वाले के लक्षण हैं। दृढ़ता, मित्रता, दयालुता, सत्यवादिता, दानशीलत्व, स्वकार्यपटुता, सर्वधर्म समदर्शित्व पीत लेश्या के लक्षण हैं। नारकी, तिर्यंच, भवनवासी, वान, व्यंतर और ज्योतिषी देवों के अपर्याप्तक काल कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ होती हैं और सौधर्म आदि ऊपर के देवों के अपर्याप्त काल में पीत, पद्म व शुक्ल लेश्या होती है। असंयत सम्यग्दृष्टियों के अपर्याप्त काल में छहों लेश्या होती हैं। देवों, नारकी व मनुष्य गति में उत्पन्न हुए औदारिक मिश्र काय योग में वर्तमान हैं और जिनकी पूर्व भव सम्बन्धी भाव लेश्याएँ अभी तक नष्ट नहीं हुईं, ऐसे जीवों के भाव से छहों लेश्याएँ पाई जाती हैं। कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाले जीव एक इन्द्रिय से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं। पीत लेश्या व पद्म लेश्या वाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान तक होते हैं। शुक्ल लेश्या वाले जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर संयोगकेवली गुणस्थान तक होते हैं। तेरहवें गुणस्थान के आगे सभी जीव लेश्या रहित है। कृत्य-कृत्य वेदक काल के भीतर उसका मरण भी होगा, कापोत, तेज, पद्म और शुक्ल इन लेश्याओं में से किसी एक लेश्या के द्वारा परिनिर्मित होगा। शुक्ल लेश्याओं में सम्यक्त्व की विराधना नहीं होती। सौधर्म आदिक देवों की द्रव्य, भाव लेश्या समान होती हैं । 1