पार्श्वस्थ साधु
जो उत्पादन व एषणा दोष सहित आहार ग्रहण करते हैं, हमेशा एक ही वसतिका में रहते हैं, उपकरणों से ही अपनी आजीविका चलाते हैं, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप – विनय से सदा दूर रहते हैं और गुणी संयमी जनों के सदा दोषों को ढूँढते रहते हैं, वे पार्श्वस्थ आदि साधु हैं। ये नमस्कार करने योग्य नहीं है। इनके पाँच भेद हैं- पार्श्वस्थ, आसन्न, संसक्त, कुशील और मृगचारी । अतिचार रहित संयम मार्ग का स्वरूप जानकर भी उसमें जो प्रवृत्ति नहीं करता परन्तु संयम मार्ग के पार्श्व में अर्थात् समीप ही रहता है, इसलिए उसे पार्श्वस्थ कहते हैं। जो साधु चारित्र के पालन में सर्वथा शिथिल है, उसे आसन्न कहते हैं। जो साधु मंत्र, बैद्यक, ज्योतिष आदि से अपनी जीविका चलाता है और राजा आदि की सेवा करता है, उसे संसक्त कहते हैं। जिसका कुशील प्रगट रूप से दिखाई पड़ता है वह कुशील (साधु ) है। जो अकेले ही स्वच्छन्द रीति से बिहार आदि करते हैं और जिनेन्द भगवान के वचनों को दूषित करते हैं उनको मृगचारी (साधु ) सा स्वच्छन्द कहा जाता है।