पर्याय
द्रव्य की अवस्था विशेष को पर्याय कहते हैं। पर्याय के दो भेद हैं द्रव्य पर्याय और गुण पर्याय अथवा दूसरे प्रकार से अर्थ पर्याय व व्यंजन पर्याय रूप से पर्याय दो प्रकार की होती है। पर्याय एक के पश्चात दूसरी इस प्रकार क्रमपूर्वक होती है इसलिए पर्याय क्रमभावी या क्रमवर्ती कही जाती है। प्रत्येक द्रव्य में षद्गुणी हानि वृद्धिरूप, सूक्ष्म, परमागन प्रमाण से स्वीकार करने योग्य वचन से नहीं कहीं जाने योग्य, प्रतिक्षण होने वाली पर्याय को अर्थ पर्याय या गुण पर्याय कहते हैं। जो स्थूल होती है शब्द से कही जा सकती है और चिरस्थायी होती है, वह व्यंजन पर्याय या द्रव्य पर्याय है। कर्मोपाधि रहित पर्याऐं स्वभाव पर्याऐं कहीं जाती हैं और कर्मोपाधिसहित पर्याऐं विभाव पर्याऐं हैं। चरम शरीर से किंचित् न्यून जो सिद्ध पर्याय है वह जीव की स्वभाव व्यंजन पर्याय हैं अविभागी परमाणु पुद्गल की स्वभाव व्यंजन पर्याय हैं। मनुष्य, नारक, तिर्यंच और देवरूप पर्याऐं वे जीव की विभाव पर्याऐं हैं तथा स्कंध रूप पर्याय पुद्गल की विभाव व्यंजन पर्यायें हैं। समस्त द्रव्यों के अपने-अपने अगुरूलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होने वाली षट्स्थान पतित हानिवृद्धि रूप अनेकत्व की अनुभूतिरूप स्वभाव, अर्थ पर्याय हैं तथा जीव द्रव्य की विभाव अर्थ पर्याय कषाय तथा विशुद्धि व संक्लेश रूप शुभ-अशुभ लेश्यायों में षट् स्थानगत हानि वृद्धिरूप जाननी चाहिए। द्वि- अणुक आदि स्कन्धों में ही रहने वाली तथा चिरकाल स्थायी स्पर्श रस आदि रूप पुद्गल की विभाव अर्थ पर्याय जाननी चाहिए। जीव और पुद्गल में स्वभाव व विभाव रूप पर्याऐं होती हैं, शेष चार द्रव्यों को विभाव पर्याय का अभाव है।