परिहार विशुद्धि चारित्र
प्राणिवध से निवृत्ति को परिहार कहते हैं इस युक्त शुद्धि जिस चारित्र में होती है वह परिहार विशुद्धि चारित्र है अथवा जिसके हिंसा का परिहार ही प्रधान है ऐसे शुद्धि प्राप्त संयत को परिहार शुद्धि संयम कहते हैं अथवा मिथ्यात्व रागादि विकल्प रूप मल का त्याग करके विशेष रूप से जो आत्मविशुद्धि प्राप्त होती है, वह परिहार विशुद्धि चारित्र है परिहार विशुद्धि संयत प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में ही होते हैं। कोई जीव तीस वर्ष तक गृहस्थ में सुखपूर्वक रहकर फिर संयम ग्रहण करके वर्ष प्रथकत्व अर्थात् ( 3 से 8 वर्ष तक) तीर्थंकर के पादमूल में प्रत्याख्यान नामक पूर्व को पढ़ तत्पश्चात् परिहार विशुद्धि संयम को प्राप्त कर और कुछ कम पूर्व कोड़ि वर्ष तक रहता है इस प्रकार अड़तीस वर्ष कम पूर्व कोड़ि वर्ष प्रमाण परिहार विशुद्धि संयत का काल कहा गया है कोई आचार्य सोलह वर्ष और कोई बाईस वर्ष कम पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण और काल कहते हैं । मनःपर्यय ज्ञान, परिहार विशुद्धि संयम प्रथमोपशम सम्यक्त्व और आहारक शरीर व आहारक शरीरांगोपांग इन में से किसी एक के होने पर शेष नहीं होते। परिहार विशुद्धि संयत के तैजस आदि आहारक ये दोनों समुद्घात नहीं होते। परिहार विशुद्धि संयत के उपशम सम्यक्त्व और उपशम श्रेणी होना संभव नहीं। परिहार विशुद्धि संयत जीव के विक्रिया ऋद्धि और आहारक ऋद्धि के साथ इस संयम का होना सम्भव नहीं।