निरतिचार
अहिंसादिक व्रत है और इनके पालन करने के लिए क्रोधादिक का त्याग करना शील है, इन दोनों के पालन करने में निर्दोष प्रवृत्ति करना शील- व्रतानतिचार है। शीलव्रतों में निरतिचार से ही तीर्थंकर नामकर्म बांधा जाता है। वह इस प्रकार से हिंसा, असत्य, चौर्य, और अब्रह्म से विरत होने का नाम व्रत है। व्रतों की रक्षा को शील कहते है। सुरापान, माँसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरूषवेद एवं नपुंसकवेद, इनके त्याग न करने का नाम अतिचार और इनके विनाश करने का नाम निरतिचार या सम्पूर्णता है, इनके भाव को निरतिचार कहते है।