दान
दूसरे का उपकार हो इस भावना से अपनी वस्तु का अप्रण करना दान है अथवा रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने धन का त्याग करने अथवा रत्नत्रय के योग्य साधनों के प्रदान करने की भावना का नाम दान है आहार – दान, औषधि-दान, ज्ञान-दान (उपकरण- दान) और अभय – दान ऐसे चार प्रकार का दान है दयादत्ति (करूणा – दान ) पात्रदत्ति समदत्ति और अन्वय या सकलदत्ति ये चार की दत्ति (दान) कहीं गई है। सात्विक, राजसिक और तामसिक ऐसे तीन प्रकार के दान का भी उल्लेख मिलता है। खाद्य, स्वाद्य, लेय और पेय ये चार प्रकार का श्रेष्ठ आहार नवधा भक्ति पूर्व पात्र (मुनि आदि) को देना आहार दान है उपवास, व्याधि, परिश्रम आदि से पीड़ित सपात्र को देखकर शरीर के योग्य पथ्य रूप औषधि देना औषधि दान है जिन वचनों का अध्यापन कराना ( पढ़ाना) या शास्त्र पीछी कमंडल आदि उपकरण देना ज्ञान दान या उपकरण दान है। प्राणियों के प्राणों की रक्षा करना अथवा उन्हें ठहरने का सुरक्षित स्थान आदि देना अभयदान या आवास दान है। अनुग्रह करने योग्य दुखी प्राणियों के समूह को दयापूर्वक अभयदान देना दयादत्ति है अथवा दीनदुखी जीवों को करूणादान दे रहा है, ऐसा समझकर यथायोग्य आहार आदि देना दयादत्ति दान व करूणादान है। यहाँ तपस्वी मुनियों के लिये सत्कार पूर्वक पड़गाहन कर जो आहार आदि दिया जाता है उसे पात्र दत्ति कहते हैं। क्रिया मंत्र व्रत(आचरण-विचार) आदि में जो अपने समान है उसे कन्या, हाथी, घोड़ों, रथ, रत्न, भूमि स्वर्ण आदि देना समदत्ति है। अपने वंश की प्रतिष्ठा के लिए पुत्र को समस्त कुलपद्धति तथा धन सम्पदा के साथ अपना कुटुम्ब समप्रण करने को सकल दत्ति कहते हें। जिस दान में अतिथि का उपकार हो, जिसमें पात्र की परीक्षा व निरीक्षण स्वयं किया गया हो और जिसमें श्रद्धादि समस्त गुण हों उसे सात्विक दान कहते हैं। जो दान केवल अपने यश के लिए किया गया हो ओर दूसरे के द्वारा दिलाया गया हो उसे राजसिक दान कहते हैं जिसमें पात्र अपात्र का कुछ ध्यान न रखा गया हो अतिथि का सत्कार न किया गया हो जो निन्दा हो और जिसे सेवकों के द्वारा दिलाया गया हो ऐसे दान को तामसिक दान कहते हैं। विधि द्रव्य दाता और पात्र की विशेषता से दान में अर्थात् दान से प्राप्त होने वाले पुण्य में कई विशेषता आ जाती है प्रतिग्रहण आदि में आदर या अनादर होने से जो भेद होता है वह विधि विशेष है जिससे तप, स्वाध्याय आदि की वृद्धि होती है वह द्रव्य विशेष है ईर्ष्या, विषाद आदि न होना दाता की विशेषता है तथा मोक्ष के कारण मूलगुणों से युक्त होना पात्र की विशेषता है। सत्पात्र को दान देना सम्यग्दृष्टि के लिए स्वर्ग और मोक्ष का कारण है तथा सत्पात्र को दान देना मिथ्यादृष्टि के लिए भोगभूमि का कारण है। गृहस्थों के लिऐ तो सत्पात्र को आहारादि दान देना ही परम धर्म है गृहस्थ को अपने कमाए हुऐ धन के चार भाग में से एक भाग धर्म कार्य में लगाना चाहिए ।