दर्शनविशुद्धि
‘दर्शन’ का अर्थ सम्यग्दर्शन है। उसकी विशुद्धता या निर्मलता का नाम दर्शनविशुद्धि है। जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गए निर्ग्रन्थ मोक्ष मार्ग में रुचि और निशंकित आदि आठ अंग सहित होना सो दर्शनविशुद्धि है। इस प्रकार दर्शनविशुद्धि भावना से जीव तीर्थंकर नामकर्म का अर्जन करते हैं। तीन मूढ़ताओं से रहित और आठ दोषों से रहित जो सम्यग्दर्शन भाव है, उसे ही दर्शनविशुद्धि कहते हैं। अथवा सोलह कारण भावना में यह प्रथम भावना है,विनय सम्पन्नता आदि भावनाएँ दर्शनविशुद्धि भावना के बिना सम्भव नहीं है। तीर्थकर प्रकृति के बंध में दर्शन– विशुद्धि भावना अनिवार्य है।