तीर्थंकर नामकर्म
जिस कर्म के उदय से तीन लोक में पूज्यता प्राप्त होती है उसे तीर्थंकर नामकर्म कहते हैं अथवा जिस कर्म के उदय से जीव पाँच महाकल्याणकों को प्राप्त करके तीर्थ अर्थात् आगम की रचना करता है वह तीर्थंकर नामकर्म है मनुष्य गति में ही तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध का प्रारम्भ होता है अन्यत्र नहीं। जिसने पहले मनुष्य या तिर्यंच आयु का बंध कर लिया है ऐसे जीव के तीर्थंकर नाम कर्म का बंध नहीं होता। तीर्थंकर प्रकृति का बंध असंयत गुणस्थान वाले जीवों से लेकर अपूर्वकरण के 6 भाग तक होता है। देवायु के बंध सहित तीर्थकर प्रकृति का बंध करने वाले जीव सम्यकत्व से भ्रष्ट नहीं होते। नरकायु के बंध सहित तीर्थंकर के प्रकृति के बंध का प्रारम्भ होने से पूर्व किसी जीव ने मिथ्यात्व को प्राप्त होकर तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता के साथ द्वितीय व तृतीय पृथिवियों में उत्पन्न होते हैं वैसे इन पृथिवियों में उत्पन्न नहीं होते।