चरणानुयोग
उपासकाध्ययन आदिमें श्रावक का धर्म और मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यति का धर्म जहाँ मुख्यता से कहा गया है, वह दूसरा चरणानुयोग कहा जाता है।
चरणानुयोग का लक्षण
रत्नकरंडश्रावकाचार श्लोक 45 गृहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षांगम्। चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥45॥
= सम्यग्ज्ञान ही गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि, रक्षा के अंगभूत चरणानुयोग शास्त्र को विशेष प्रकार से जानता है।
( अनगार धर्मामृत अधिकार 3/11/261)।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 42/182/9 उपासकाध्ययनादौ श्रावकधर्मम्, आचाराराधनौ यतिधर्मं च यत्र मुख्यत्वेन कथयति स चरणानुयोगो भण्यते।
= उपासकाध्ययन आदिमें श्रावक का धर्म और मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यति का धर्म जहाँ मुख्यता से कहा गया है, वह दूसरा चरणानुयोग कहा जाता है।
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चरणानुयोग
जिसमें मुख्य रूप से गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के साधनों का वर्णन किया गया है वह चरणानुयोग है। इस अनुयोग का प्रयोजन यह है कि जो जीव अपने हित अहित को नहीं जानते हैं हिंसादि पाप कार्य में लगे हैं, वे पाप कार्य को छोड़कर धर्म कार्य करें, धर्म का आचरण करे जिससे कषाय मंद हो, कुगति से बच सकें अच्छी गति में सुख पाए। जो सम्यग्दृष्टि जीव चरणानुयोग का अभ्यास करते हैं, उन्हें इसमें वर्णित सारा आचरण वीतराग भाव की प्राप्ति और (रागादि के) घटाने में निमित्त जान पड़ता है।