क्षपणा
तीन करण विधान है क्षायिक होई चरित्रमोह की क्षपणा को योग्य जो विशुद्ध परिणाम तिनि करि सहित होई तैं प्रमत्त तैं अप्रमत्त विषै अप्रमत्त प्रमत्त विषै हजारों बार गमनागमन करि क्षपक श्रेणी को सम्मुख सातिशय प्रमत्तगुण स्थान विषै अधःकरण रूप प्रस्थान करै हैं । अधःकरण अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, बंधापसरण, सत्तापसरण, क्रमकरण, अष्टकषाय, सोलह प्रकृतिनिकी क्षपणा, देशघातिकरण, अन्तरकरण, संक्रमण अपूर्व, स्पर्धक करण, अन्तरकृष्टिकरण, सूक्ष्मकृष्टि अनुभवन । ऐसे ही चारित्रमोह की क्षपणा के अन्तर्गत 13 अधिकार होते हैं। प्रथम ही अधःप्रवृत्तकरण रूप परिणाम को करता हुआ सातिशय अप्रमत्त संज्ञा को प्राप्त होता है। चार आवश्यक कार्य प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि प्रशस्त प्रकृतियों का अनन्त गुण क्रम से चतुर्थ स्थानीय अनुभाग बंध अप्रशस्त प्रकृतियों का अनन्त भागहीन क्रम से केवल द्विस्थानीय अनुभाग बंध और पल्य के असंख्यातवें भाग हीन क्रम से संख्यात सहस्र बन्धापसरण तदनन्तर अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रवेश करके वहाँ के योग्य चार आवश्यक करता है। असंख्यात गुण क्रम से गुण श्रेणी निर्जरा, असंख्यात गुना क्रम से ही गुण संक्रमण, सर्व ही प्रकृतियों का स्थितिकाण्डक घात और केवल अप्रशस्त प्रकृतियों का घात तदन्तर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करके वहाँ के योग्य चार आवश्यक करता है। असंख्यात गुण से गुण श्रेणी निर्जरा असंख्यात गुना क्रम से ही गुण संक्रमण पल्य के असंख्यात भाग आयामवाला स्थिति काण्डकघात अनन्त बहुभाग क्रम से अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग काण्डकघात स्थितिबंध और सत्त्व का अपसरण बराबर हुआ ही करै । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में क्रमकरण के द्वारा मोहनीय, वेदनीय, नाम और गोत्र इन सभी प्रकृतियों के स्थिति बंध व स्थिति सत्त्व के परस्थानी अल्प- बहुत्व में विशेष क्रम में परिवर्तन करता है। तदन्तर मति आदि चार ज्ञानावरण, चक्षु आदि तीन दर्शनावरण, पाँच अन्तराय इन बारह प्रकृतियों के सर्वघाति की बजाय देशघाति अनुभाग युक्त बंध और उदय होने योग्य करता है। अनिवृत्तिकरण का असंख्यात भाग शेष रहने पर चार संज्वलन और नव नोकषाय इन 13 प्रकृतियों का संक्रमण अधिकार में प्रथम ही सप्तकरण करता है। तहाँ से आगे अपूर्व स्पर्धकों की रचना करता है, जिससे उनका अनुभाग अनन्तगुणा क्षीण हो जाता है। तदन्तर उसी अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के काल में रहता हुआ अपूर्वस्पर्धकों का संग्रह कृष्टि व अन्तरकृष्टिकरण द्वारा कृष्टियों को विभाजित करता है। कृष्टिकरण पूर्ण कर चुकने पर वहाँ अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के चरम भाग में रहता हुआ इन बादर कृष्टियों को क्रोध, मान, माया, लोभ के क्रम से वेदन करता है। अब सूक्ष्म कृष्टि के वेदता हुआ सूक्ष्म साम्पराय में प्रवेश करता है। इसके अनन्तर राग का भी क्षय करके क्षीण गुणस्थान में प्रवेश करता है।