कल्पातीत
कल्प शब्द का व्यवहार वैमानिकों में किया जाता है। वे दो प्रकार हैं- कल्पोपपन्न और कल्पातीत । जो कल्प में उत्पन्न होते हैं, वो कल्पोपन्न कहलाते हैं और जो कल्पों के परे कल्पातीत है। नवग्रैवेयक नव अनुदिश और पंच अनुत्तर इस प्रकार संख्या कृत कल्पना होने से उनमें कल्पत्व का प्रसंग आता है। क्योंकि पहले ही कहा जा चुका है कि इन्द्रादि दस प्रकार की कल्पना के सद्भाव से ही कल्प कहलाते हैं। नवग्रैवेयक आदि में इन्द्रादि की कल्पना नहीं क्यों कि वे अहमिन्द्र हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त, और अपराजित नाम के अनुत्तर विमानवासी देव द्विचरमदेही होते हैं, अर्थात् एक मनुष्य व एक देव ऐसे दो भव बीच में लेकर तीसरे भव में मोक्ष जायेंगे। सर्वार्थसिद्धि के देव परम उत्कृष्ट हैं। उनका सर्वार्थ सिद्धि ये सार्थक नाम है, इसलिए वे एक भवातारि है अर्थात् अगले भव से मोक्ष जायेंगे। सब लौकान्तिक देव एक भवातारि हैं। कल्पवासी और कल्पातीतों में से कोई देव द्विचरम शरीरी अर्थात् आगामी भव में मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं। अग्रमाहिषी और लोकपालों से सहित सौधर्मेन्द्र सभी दक्षिणेन्द्र सर्वाथसिद्धि वासी, लौकान्तिक नामक सब देव नियम से द्विचरम शरीरी हैं। शेष देवों में नियम नहीं है।