उपबृंहण
उत्तम क्षमा आदि भावनाओं के द्वारा आत्मा की धर्म की वृद्धि करना उपबृंहण है। उपबृंहण का अर्थ बढ़ाना होता है “वृह वृही वृद्धौ ” इस धातु से वृंहण शब्द की उत्पत्ति होती है ‘उप’ इस उपसर्ग के योग से ‘वृह’ धातु का अर्थ बदला नहीं है, स्पष्ट, अग्राम्य और मन को प्रसन्न करने वाले वस्तु के यथा स्वरूप को भव्यों के आगे दप्रण के समान दिखाने वाले ऐसे धर्मोपदेश के द्वारा तत्त्वश्रद्धान बढ़ाना यह उपबृंहण गुण है इन्द्र प्रमुख देवों के द्वारा जैसी महत्वयुक्त पूजा की जाती है वैसी जिनपूजा करके अपने जिनधर्म में जिन भक्ति में स्थिर रहना और दुर्धर तपश्चरण व आता योग धारण करके अपने आत्मा में श्रद्धा गुण उत्पन्न करना इसको भी उपबृंहण कहते है आत्मा की शुद्धि में कभी दुर्बलता न आने देना ही उपबृंहण अंग कहलाता है अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र रूप अपने भावों से जो च्युत नहीं होता है, वही उपबृंहण गुण कहलाता है।