आयु
1. जीवन के परिणाम का नाम आयु है । अथवा जिसके सद्भाव में आत्मा का जीवितव्य होता है तथा जिसके अभाव से मृत्यु होती है उसे आयु प्राण कहते हैं। 2. जिसके उदय से जीव नरकादि भवों को धारण करता है वह आयुकर्म है। आयुकर्म की सत्ता दो प्रकार से देखी जाती है। भुज्यमान आयु और बध्यमान आयु । विद्यमान जिस आयु को जीव भोगता है, वह भुज्यमान आयु कहलाती है और आगामी भव की आयु जिसका उसने बंध कर लिया हो वह बध्यमान आयु कहलाती है। नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु- ये चार आयुकर्म के भेद हैं। मध्यम परिणामों से ही आयु बंधती है। अति जघन्य परिणाम आयु बंध के अयोग्य होते हैं तथा अत्यन्त तीव्र परिणाम भी आयु बंध के अयोग्य ही है क्योंकि ऐसा स्वभाव ही लेश्या के छब्बीस अंश है जिसमें छहों लेश्या के जघन्य मध्यम, उत्कृष्ट भेदों की अपेक्षा अठारह अंश हैं तथा कापोत लेश्या के उत्कृष्ट अंश से आगे और तेजो लेश्या के उत्कृष्ट अंश से पहले कषाय के उदय स्थानों में आठ मध्यम अंश हैं ऐसे कुल छब्बीस हैं जिसमें आयु बंध के योग्य आठ मध्यम अंश जानना चाहिए। बहुत आरम्भ व बहुत परिग्रह का भाव होना नरकायु के आश्रव का कारण है अथवा हिंसादि क्रूर कार्यों में निरन्तर लगे रहना, दूसरों के धन का हरण करना, इन्द्रियों के विषयों में अत्यन्त आसक्ति तथा मरते समयष्कृष्ण लेश्या और रौद्रध्यान आदि का होना नरकायु के आस्रव का कारण है । मायाचारी, छल कपट का भाव तिर्यचायु के आस्रव का कारण है अथवा धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर उनका प्रचार करना शीलरहित जीवन बिताना, दूसरों के दोष देखने में अत्यन्त रूचि लेना तथा मरण के समय नील व कापोत लेश्या और आर्तध्यान आदि होना तिर्यचायु के आस्रवका कारण है। अल्प आरंभ पाप कार्यद्ध और अल्प परिग्रह का भाव होना मनुष्यायु के आस्रव का कारण है। स्वभाविक मृदुता भी मनुष्यायु के आस्रव में कारण है अथवा स्वभाव का विनम्र होना, सज्जनता होना, सरल व्यवहार करना, मंद कषाय होना तथा सराग संयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बाल तप ये देवायु के आस्रव में कारण है सम्यक्त्व भी देवायु का कारण है।