व्युत्सर्ग तप
अहंकार और ममत्व रूपसंकल्प का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है अथवा शरीर व आहार में मन एवं वचन की प्रवृत्तियों को हटाकर ध्येय वस्तु की ओर एकाग्रता से चित्त का निरोध करने को व्युत्सर्ग (तप) कहते है। शरीर का उत्सर्ग करके अर्थात शरीर के प्रति ममत्व भाव छोड़कर के ध्यानपूर्वक एक मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष, और एक महीना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नाम का प्रायश्चित्त है। व्युत्सर्ग तप के दो भेद है- अभ्यन्तर व बाहृय । अंतरंग परिग्रह रूप क्रोध आदि का त्याग करना अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है तथा बाह्य परिग्रह रूप क्षेत्र वास्तु आदि का त्याग करना बाह्य उत्सर्ग है अथवा नियत काल तक या जीवन पर्यन्त तक काय का त्याग करना भी अभ्यन्तर व्युत्सर्ग है । काय सम्बन्धी अभ्यन्तर व्युत्सर्ग दो प्रकार का हैअनियतकाल व नियतकाल । अनियत काल व्युत्सर्ग भक्तप्रत्यारव्यान इंगिनी व प्रायोपगमन विधि से शरीर को त्यागने की अपेक्षा तीन प्रकार का है। नियत काल व्युत्सर्ग नित्य व नैमित्तिक के भेद से दो प्रकार का है। षट् आवश्यक आदि क्रियाओं का करना नित्य है तथा पर्व के दिनों में होने वाली क्रियाएँ करना व निषद्या आदि क्रिया करना नैमित्तिक है। प्रायश्चित के रूप किया गया व्युत्सर्ग अतिचार होने पर उसकी शुद्धि के लिए किया जाता है पर व्युत्सर्ग तप स्वयं निरपेक्ष भाव से किया जाता है यही दोनों में अन्तर है। इसी प्रकार तप के प्रकरण में तो नियत काल के लिए सर्वत्याग किया जाता है और त्याग धर्म में अनियत काल के लिए यथा शक्ति त्याग लिया जाता है।