विप्राणस मरण
दुष्काल में अथवा दुर्लघ्य जंगल में दुष्ट राजा के भय से तिर्यंच आदि के उपसर्ग में, एकाकी स्वयं सहन करने को सामर्थ्य न होने से, ब्रह्मव्रत के नाश से, चारित्र में दोष लगने का प्रसंग आया हो तो संसार भीरू व्यक्ति कर्मों का उदय उपस्थित हुआ जानकर जब उसको सहन करने में अपने को समर्थ नहीं पाता है, और न ही उसको पार करने का कोई उपाय सोच पाता है, तब वेदना को सहने से परिणामों में संक्लेश होगा और उसके कारण रत्नत्रय की आराधना से निश्चिय ही मैं च्युत हो जाऊँगा, ऐसी निश्चित मति को धारते हुए, निष्कपट होकर चरित और दर्शन में निष्कपटता धारण कर धैर्य युक्त होता हुआ, ज्ञान का सहारा लेकर निदान रहित होता हुआ अर्हन्त भगवान के समीप आलोचना करके विशुद्ध होता है। निर्मल लेश्या धारी वह व्यक्ति अपने श्वांसोच्छवास क निरोध करता हुआ प्राण त्याग करता है। ऐसे मरण को विप्राणस मरण कहते हैं ।