निन्दा
स्वयं अपने दोषों को प्रगट करना या उनका पश्चाताप करना निन्दा कहलाती है। अनिष्ट फल के कहने को निन्दा कहते हैं। परनिन्दा और आत्म प्रशंसा करना तीव्र कषायों के चिन्ह है। दूसरे की निन्दा और अपनी प्रशंसा करना आदि से अशुभ नामकर्म का आश्रव होता है। जो साधु अतिशय दुष्कर तपों के द्वारा अपने निज दोषों के नष्ट करने उद्धत है। वह अज्ञानता वश दूसरों के दोषों के कथनरूप भोजनों के द्वारा उन्हीं दोषों को पुष्ट करता है।