धर्माधर्म
धर्म द्रव्य का गमनहेतुत्व और अधर्म द्रव्य का गुण स्थिति कारणता है। जिस प्रकार जगत में पानी मछलियों को गमन में अनुग्रह करता है, उसी प्रकार धर्म द्रव्य जीव पुद्गलों को गमन में अनुग्रह करता है उसी प्रकार अधर्म नाम का द्रव्य भी है परन्तु वह स्थिति क्रिया युक्त जीव पुद्गलों को पृथ्वी की भाँति कारण भूत है। मछली के गमन मे जल साधारण निमित्त है उसी प्रकार गमन करते हुए जीव पुदगलों के गमन में धर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है तथा जिस प्रकार घोड़ा आदि के ठहरने मे पृथ्वी साधारण निमित्त है या पथिक को ठहरने के लिए वृक्ष की छाया साधारण निमित्त है उसी प्रकार ठहरने वाले जीव पुद्गलों को ठहरने मे अधर्मास्तिकाय साधारण निमित्त है। धर्मास्तिकाय का अभाव होने के कारण सिद्ध भगवान लोक से ऊपर नहीं जाते। इसलिए धर्मद्रव्य भी सर्वदा जीव पुद्गल की गति को करता है। अधर्म द्रव्य के निमित्त से ही सिद्ध भगवान लोक शिखर पर अनन्तकाल निश्चित ठहरते है। इसलिए अधर्म ही सर्वदा जीव पुद्गल की स्थिति के कर्त्ता है वह(धर्मास्तिकाय) अनन्त ऐसे जो अगुरुलघु गुण रूप सदैव परिणमित होता है, नित्य है। गति क्रिया युक्त द्रव्यों की क्रिया मे निमित्त होता है और स्वयं अकार्य है। जैसा धर्मद्रव्य होता है वैसे ही अधर्म द्रव्य होता है जीव पुद्गल की गति स्थिति तथा लोक और अलोक का विभाग इन दोंनों के सद्भाव से होता है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जहाँ तक पाये जाते है वह लोकाकाश है और इससे बाहर अलोकाकाश है जहाँ सिर्फ आकाश द्रव्य है । इन दोंनों के सद्भाव व असद्भाव की अपेक्षा लोकालोक के विभाग की सिद्धि होती है धर्म अधर्म द्रव्य निष्क्रिय और लोकाकाश भर मे फैले हुए है। जिस प्रकार घर में घट अवस्थित है उस प्रकार लोकाकाश में धर्म अधर्म द्रव्यों का अवगाह नहीं है। किन्तु जिस प्रकार तिल मे तेल रहता है, उस प्रकार सब लोकाकाश में धर्म और अधर्म का अवगाह है। धर्म, अधर्म आकाश यह तीनों एक एक द्रव्य है क्योंकि अखण्ड है। धर्म, अधर्म और अरस, अगन्ध, अवर्ण और अशब्द है।