काल लब्धि
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में काल लब्धि आदि बहिरंग कारण और करण लब्धि रूप अंतरंग कारण होना अनिवार्य है। भव्यात्मा अर्धपुद्गल परिवर्तन काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है। इससे अधिक काल शेष रहने पर नहीं होता, यह संसार – स्थिति संबंधी काल-लब्धि है। उत्कृष्ट या जघन्य स्थिति वाले कर्मों के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता बल्कि जब बंधने वाले कर्मों की स्थिति अंतः कोड़ाकोड़ी सागर होती है और विशुद्ध परिणामों के फलस्वरूप सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागर कम अंतः कोड़ाकोड़ी सागर रह जाती है तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है, यह कर्म–स्थिति संबंधी काल लब्धि है। जो जीव भव्य है, संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है वह प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य है, यह भव संबंधी काल- लब्धि है। जैसे विद्वान मित्र की प्राप्ति दुर्लभ है वैसे ही उपशम, काल व करण इन लब्धियों की प्राप्ति दुर्लभ है। भव्य जीव अपने समय के अनुसार ही मोक्ष जाएगा ऐसा एकान्त नियम नहीं है क्योंकि भव्यों की कर्म निर्जरा का कोई समय निश्चित नहीं है और न मोक्ष का । कोई भव्य संख्यात काल में सिद्ध होंगे, कोई असंख्यात में और कोई अनन्त काल में । कुछ ऐसे भी हैं जो अनंतानंत काल में भी सिद्ध नहीं होंगे। अतः भव्य के काल नियम की बात उचित नहीं है। कृत्रिम गर्मी के द्वारा पकाए गए आम्र फल की भाँति अकाल नय से आत्म द्रव्य समय पर आधारित नहीं है।