उदय
कर्म के विपाक को उदय कहते हैं अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव के अनुसार कर्मों के फल का प्राप्त होना उदय है अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भव के आश्रय से स्थिति का क्षय होना और कर्म स्कंधों का अपना फल देकर झड़ जाना उदय है। जैसे- जीवों के जो तत्त्व का अज्ञान है वह अज्ञान का उदय है, जीव के जो अश्रद्धान है वह मिथ्यात्व का उदय है जीवों के जो अविरत भाव है वह असंयम का उदय है और जीवों के जो मलिन उपयोग हैं वह कषाय का उदय है। कर्म का उदय दो रूपों में होता है- स्वमुखोदय व परमुखोदय । जो कर्म प्रकृति अपने स्वभाव के अनुरूप ही उदय में आती है वह स्वमुख – उदय है। जो कर्म प्रकृति अन्य प्रकृति रूप होकर उदय में आती है वह परमुख-उदय है। कर्म स्वरूप से या पर- रूप से फल बिना दिए नहीं झड़ते- ऐसा नियम है । उदय में भेद की अपेक्षा सर्व 148 प्रकृतियाँ उदय योग्य हैं और अभेद की अपेक्षा 122 प्रकृतियाँ उदय योग्य हैं। तैजस, कार्मण, वर्णादिक चार, स्थिर- अस्थिर, शुभ-अशुभ, अगुरूलघु निर्माण ये नामकर्म की 12 प्रकृतियाँ ध्रुवोदयी हैं।